About Me

दरिया व पहाड़ो की मस्ती मुझे विरासत में मिली है। गंगा किनारे बसे शहर बनारस के पास मिर्ज़ापुर ज़िले के एक गावं बरेवां से पुरखों ने इस सफ़र की शुरूआत की। जो बहते बहते पहुंच गए सोन नदी के किनारे बसे राबर्ट्सगंज में । फिर वो वहीं के होकर रह गए। लेकिन मैंने रूकना कभी सीखा नहीं। बहते रहना- मेरी फितरत है, फक़ीरों की तरह। गंगा सागर में मिलने से बेहतर युमना किनारे बसे शहर दिल्ली में धुनी रमाना बेहतर समझा। जीने के लिए कलम का सहारा लिया। ज़माने को बदलना है- इस जज़्बे के साथ जूते घिस घिस कर अख़बारों और पत्र पत्रिकाओं में कलम घिसने की ठानी । ज़माना बदला हो या नहीं- ये पता नहीं। लेकिन इन दो साल में मैं ज़रूर बदल गया हूँ । बदलाव की शुरूआत हुई - अख़बारों की दुनिया में कदम रखने से । इस पत्रकारिता की दुनिया ने बार बार हाथ झटक दिया। लेकिन अब मैं थोड़ा डीठ हो चुका हूं। ख़ाल मोटी होने लगी है । पत्रकारिता और मेरे बीच मियां - बीवी जैसा रिश्ता क़ायम होने लगा है । कोशिश कर रहा हूं नाग नागिन के इस दौर में सार्थक पत्रकारिता करने की। कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। बस हव्शाला बुलंद होने की देरी है

Saturday, February 20, 2010

दरक रहा मीडिया का अस्तित्व

यदि किसी देश की असलियत जाननी हो तो उसके चौथे स्तंभ यानी मीडिया से रूबरू होना पड़ेगा । वर्तमान लोकतंत्र में मीडिया की जिम्मेदारी दिन-प्रतिदिन तगड़ी होती जा रही है। लेकिन इस सब से परे दुनिया पर हावी हो चुके बाजारवाद ने इस चौथे खंबे को झकझोर कर रख दिया है। 5-7 सालों से लगातार ये आरोप लगाए जा रहे हैं कि मीडिया अपने उद्देश्यों से भटक गया है, वह भ्रष्ट हो गया है, उसे देश और समाज की कोई फिक्र नहीं रह गई है, वह बाज़ार के हाथों में बिक गया है और उसका एकमात्र मक़सद मुनाफ़ा कमाना हो गया है। ज़ाहिर है इस तरह के आरोपों में सचाई है, अन्यथा बिना आग के तो धुँआ भी नहीं उठता। मीडिया पर लग रहे इन आरोपों से पत्रकारिता की छवि भी धूमिल हुई है और पत्रकार बिरादरी भी कठघरे में आ गई है। सवाल उठता है कि इस स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार है, पत्रका...न्यूज़ चैनल और पत्र-पत्रिकाएं चलाने वाले प्रतिष्ठान, उनके मालिक, सरकार, बाज़ार या समूची व्यवस्था? जिन समाजिक एंव देश हित कार्यो के कारण मीडिया ने अपना अस्तित्व धारण किया था आज वही कार्य बाजारवाद के कारण उसके लिए बेइमानी हो गयी है। लोक तंत्र का सजग प्रहरी कहे जाने वाला यह स्तंभ अब दरक चुका है।

आज की मीडिया ब्रेन वाशिंग, फिल्म, क्रिकेट, सेक्स, व्यक्तिगत आक्षेप और प्रायोजित खबरों का सिर्फ अड्डा बन कर रह गया है। पहले मीडिया अपने कार्य को मिशन के रूप में करता था लेकिन वर्तमान समय में मीडिया प्रायोजित खबरों का सिर्फ अड्डा बन कर रह गया है। पहले मीडिया अपने कार्य को मिशन के रूप में करता था लेकिन वर्तमान समय में मीडिया ने अपने रोल को सिर्फ और सिर्फ व्यापार तक ही सीमट कर रख दिया है। जहां पत्रकारिता का मतलब सौदेबाजी है और राजनीतिक पत्रकारिता का मतलब राजनैतिक दलों का चरण चुमना है। विकास से गर्त की ओर जाने तक का सफर राजनीति की एक सोची समझी साज़िश है जिसमें एक झूठ बार-बार और इतनी बार बोला जाता है कि वो सच बन जाता है। आधुनिकता के इस दौर में समाज के आदर्श और मापदंडों को गिराकर इतना विकृत कर दिया गया है की वही सत्य और व्यवहारिक है। आधुनिक पत्रकारिता में बहस और तर्क -वितर्क के मुद्दे और परिणाम भी पहले से ही तय कर दिए जाते है। चाहे अखबार व पत्रिका का लेखन हो या चैनलो की बहस हो आज इनके सारे कार्यक्रम निरुदेशय होने के साथ तत्कालिक भी हैं, जिसमें सिर्फ भौड़ापन वाली सूचनाएं मिलती हैं। वर्तमान में अखबार और चैनलों का व्यापार पान की दुकान की तरह हर गली हर नुक्कड़ पर हो रहा है क्योंकि यह व्यापार अब अरबों रूप्यों का खेल बन गया है जिसके संचालन में थोड़े जोखिम के साथ बड़े निवेश की आवशयकता पड़ती है। लगभग सभी बड़े बिजनेस ग्रुप और नेताओं का किसी न किसी अखबार अथवा चैनल में निवेश है। जिसके माध्यम से बिजनेस ग्रुप और नेताओं द्वारा सरकारी तंत्र पर दबाव बनाना सौदेबाजी करना, अधिक से अधिक विज्ञापन लेना और अपने व्यापार के लिए बाजार तैयार करना प्रमुख रूप से शुमार है। वर्तमान में तकनीक का भरपूर प्रयोग हो रहा है और लगभग मुफ्त अखबार बांटे जाते हैं और चैनलों का प्रसारण भी सीमित भुगतान पर मिल जाता है। मीडिया का पहला और आखिरी सरोकार प्रसार संख्या और टी आर पी बढ़ाना है और उसको हासिल करने के लिए हर घटिया से घटिया उपाय इनके द्वारा किऐ जातें हैं। पत्रकारों और संपादकों का बौद्धकि स्तर अब आवश्यक नहीं है अब वो तकनीकी विशेषज्ञ और जन संपर्क अधिकारी की भूमिका में अधिक है। सच को छुपाना और भ्रम का बाजार खड़ा करना इनके प्राथिमकताओं में शामिल है। जिला स्तरीय पत्रकारिता इस व्यवसाय का निकृष्ट रूप है। भारत के प्रत्येक जिले में 200 से ले कर 1000 पत्रकार हैं। इनमें से बहुत से दलाल हैं जो थानों के सौदेबाजी में माहिर हैं। इनमें बहुत से करोड़पति है और कुछ करोड़पति होने की कगार पर हैं। सरकारी दफ्तरों के घोटालेबाज अफसरों, अपराधियों, स्थानीय नेताओं और पुलिस के साथ मिलकर एक अलग गठजोड़ बना लेते हैं फिर क्या है इसके एवज में शराब की बोतल से लेकर मोटा कमीशन तक कुछ भी इनको मिल सकता है। अक्सर खबरें खबर से संबंधित व्यक्ति पर दबाव बना कर अपना काम निकालने या पैसे बनाने के लिए छापी जाती हैं। जब उदेश्य सिद्ध हो जाता है तब खबरें गायब हो जाती हैं । समान्यत: अखबार के मालिकों या संपादकों का इन पर नियंत्रण न के बराबर होता है। अगर स्थानीय समाचार पत्र है तो हो सकता है कि पत्रकार ही मालिक हो फिर तो पूरी आजादी है। वर्तमान समय में ऐसे लाखों प्रकाशन देश में हैं जिनकी प्रसार संख्या 100 भी नहीं है और वो सरकार से लाखों के विज्ञापन ले लेते हैं। कागजों में हेरफेर कर प्रसार संख्या बीसों पचासों गुनी तक दिखाते हैं। स्थानीय अखबारों में अधिकांश खबरें बड़े अखबारों या पत्रिकावों से चुराई भी हो सकती हैं। राज्य स्तर की पत्रकारिता एक अलग खेल है। स्थानीय भाषा के अखबार पत्रिकाए व चैनल बड़े खिलाड़ी हैं। सत्तारूढ़ राजनैतिक दल से इनकी विशेस ट्यूनिंग होती है। अखबार पत्रिका या चैनल का मालिक किसी दल का नेता या पार्टी से गठजोड़ रखने वाला अद्योगपति अथवा व्यापारी हो सकता है। अक्सर पत्रकारों का बौद्वकि स्तर उतना परिपक्व ही नहीं होता कि वो निष्पक्ष ओर गहन विशले कर पाएं विशेषकर छोटे राज्यों में घटिया अथवा बिखरी हुई कवरेज के बीच गलाकाट प्रतियोगिता में प्रकाशन व चैनलों के बंद होने व पुन: प्रारंभ होने का खेल चलता रहता है । वही वह प्रकाशन चैनल सफल है जिसकी राज्य सरकारों से बेहतर तालमेल हैं। ऐसे में सस्ती जमीन मोटे विज्ञापन विभिन्न सुविधाऐं और मालिकों को व्यापारीक फायदे के साथ साथ राजनैतिक पद भी मिलना संभव हो जाता है। उसी अखबार की पाठक संख्या अधिक होती है जो स्थानीय समाचारों व चटपटी चीजो को छिपाते है इनके लिए विज्ञापन लेना एक बड़ा मुद्दा होता है जिसके लिए वो स्थानीय लोगों के मानसिक स्तर पर जाकर प्रसार बढ़ाते है न कि उनका स्तर उठाकर । सरकारी गैरसरकारी भ्रस्ताचार व सामंत कालीन के मुद्दे जितने जोर जोर से उठाए जाते हैं उतनी ही तेजी से गायब भी हो जाते हैं। क्यों यह सर्वविदित है । पूरे प्रदेश के केबल नेटवर्क पर सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री का परोक्ष या अपरोक्ष नियंत्रण रहता है ऐसे में सरकार विरोधी खबर प्रसारित करना मुमकिन ही नहीं नामुमकिन हो जाता है। यदि कभी सरकार विरोधी खगर प्रसारित हो जाती है तो ऐसे में लेन-देन की व्यवस्था मूर्तरूप ले लेती है। आज मीडिया एक पीटा सा मोहरा हो गया है और असरहीन व अप्रभावी भी । बड़े ग्रुप अपने चैनलों व अखबारों के माध्यम से अपने व्यवसायिक हितों के लिए पत्रकारों के माध्यम से बाजारवाद का खेल खेलते हैं। इसी के साथ अनेक छोटे अखबार दलाली का खेल खेल कर धन कमाने की मुहिम छेड़े रहते हैं। सार्थक पत्रकारिता की परिभासा इन्हें आती ही नहीं है। अक्सर संपादकीय पन्नों पर आधी अधूरी बहस या मुद्दे छाये रहते हैं और लेखों में हुए कार्य का स्तर अधिक होता है । क्षेत्रीय और राट्रीय स्तर की मीडिया ने पिछले दो दशको में अपने आप को व्यापक रूप में खड़ा किया है। यदि देखा जाय तो बड़े मीडिया ग्रुप का लाभ 100 करोड़ से 1000 करोड़ तक का होता है। अनेक मीडिया समूहों का साम्राज्य 5 हजार करोड़ के बीच का है । अक्सर पाठक को वार्षिक सदस्यता की तर्ज पर अखबार व पत्रिका उपलब्ध होती है। फिर पाठक को वही पढ़ना होता है जो वो छापेगा। उत्तेजक खबरें, ब्रेकिंग न्यूज और एक ही खबर पर सारे चैनलों का एक साथ टूटना एक प्रकार की घुटन और वितृणा पैदा कर देता है। धरम अपराध, फिल्म, सेक्स, क्रिकेट, टीवी सीरियलों के समाचारों से 80 प्रतिशत समय पूरा किया जाता है और बाकी समय ब्रेकिंग न्यूज पर। आज के पत्रकारिता में सार्थक मुद्दों पर बहस शुन्य के बराबर हो गया है। मीडिया का काम आज के समय में जीडीपी की झूठी सरकारी खबरें, ‘शेयर बाजार के उतार चढ़ाव और मुद्रास्फीति के झूठे आंकलन तक ही सीमट कर रह गया है। परिस्थितियों का वास्तविक आंकलन और उपयुक्त समाधान सुझाने के स्थान पर हमे सरकारी लीपा पोती को सारे अखबार पत्रिका व चैनल तरजीह देते हैं जो अत्यंत आपतिजनक है। चारों और बिखराव, भ्रम, तात्कालिकता है। अपराध का कवरेज माफिया को महिमामंडित करना है और धर्म की कवरेज का मतलब अंधविशवास का प्रसार व भविस्य फल है । विज्ञान का मतलब प्रलय की खबरें और उत्का पिंडो व ब्रहमांड की फालतू खबरें तथा स्वास्थ का मतलब एड्स और sowinflu का प्रकोप फिल्मों की कवरेज यानी अर्ध नग्न हीरोइन, टीवी सीरियालों की कवरेज आदि सब है। मीडिया का इस तरह का योगदान हमारे देश को किस ओर ले जा रहा है यह एक अनसुलझी पहेली बना हुआ है। जरा सोचिए------------------

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